कहानी संग्रह >> कॉफी हाउस के कहकहे कॉफी हाउस के कहकहेभगवती प्रसाद वाजपेयी
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ये चौदह कहानियाँ वर्तमान अभिजात समाज की प्रदूषित जीवन शैली, शासन की उपेक्षापूर्ण रूढ़िवादिता और जनता के साथ उसकी संवादहीनता, शासक और विरोधी दल के कर्णधारों की अपराध-लिप्तता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
अपनी नवीं औपन्यासिक कृति, ‘वेदना के अंकुर’ के प्रकाशन के
उपरान्त ‘कॉफी हाउस के क़हक़हे’ शीर्षक कहानी संग्रह ‘प्रिण्ट-मीडिया’ के अनुरक्त प्रेमियों के स्वस्थ मनोरंजन हेतु प्रस्तुत करते हुए निवेदन है कि ये चौदह कहानियाँ वर्तमान अभिजात समाज की प्रदूषित जीवन शैली, शासन की उपेक्षापूर्ण रूढ़िवादिता और जनता के साथ उसकी संवादहीनता, शासक और विरोधी दल के कर्णधारों की अपराध-लिप्तता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए हमसे प्रश्न करती है विश्व-ग्राम, उन्मुक्त व्यापार की धारणा और विश्वीकृत बाजार के बढ़ते कदम विशाल जनसंख्या वाले हमारे देश के बेरोजगार लोगों को किस ओर घसीटे लिये जा रहे हैं ?
क्या बढ़ती बेरोजगारी और निरन्तर बढ़ता आर्थिक और सामाजिक असंतुलन हमारे देशवासियों के सम्मुख नित नई चुनौतियाँ नहीं खड़ा कर रहा है ? मुझे विश्वास है कि मेरे पूर्व कहानी-संग्रहों और उपन्यासों की भाँति मेरा वर्तमान कहानी-संग्रह हमारे विवेचनाशील एवं सुधी पाठकों का मनोवांक्षित मनोरंजन करेगा।
क्या बढ़ती बेरोजगारी और निरन्तर बढ़ता आर्थिक और सामाजिक असंतुलन हमारे देशवासियों के सम्मुख नित नई चुनौतियाँ नहीं खड़ा कर रहा है ? मुझे विश्वास है कि मेरे पूर्व कहानी-संग्रहों और उपन्यासों की भाँति मेरा वर्तमान कहानी-संग्रह हमारे विवेचनाशील एवं सुधी पाठकों का मनोवांक्षित मनोरंजन करेगा।
शुभाशंसा
मैंने प्रस्तुत ग्रन्थ का अवलोकन किया। इसमें हास्य-व्यंग्यपरक इक्कीस
कहानियाँ संकलित हैं। इन्हें सैटायर भी कहा जा सकता है। यह आज की सर्वाधिक
लोकप्रिय विद्या है। सैटायर की व्याप्ति इन दिनों चार रूपों में दिखाई दे
रही है :
(1) व्यंग्य-विनोद अर्थात वे रचनाएँ जिनमें हास्य का पुट अधिक होता है। यह शिष्ट हास्य भी हो सकता है और कटुलिक्त हास्य भी। हाँ, फूहड़ हास्य शोभनीय नहीं होता। व्यंग्य-प्रधान होने के कारण शुद्ध हास्य के हँसोड़ेपन से यह विनोदपरक व्यंग्य कुछ भिन्न होता है।
(2) व्यंग्य-वेदना-इन रचनाओं में व्यंग्य के माध्यम से अपने मन की पीड़ा की अभिव्यक्ति की जाती है। लेखक ऊपर से हँसता-हँसता प्रतीत होता है, किन्तु मन ही मन रोता है और गहरे अवसाद को व्यक्त करता है।
(3) व्यंग्य-विद्रोह- ये रचनाएँ मूलरूप से विक्षोभ व्यक्त करती हैं। हँसी-हँसी में यह व्यवस्था पर प्रहार करती जाती हैं और प्रतिपक्ष में जा खड़ी होती हैं।
(4) व्यंग्य विडम्बना-इन रचनाओं में परिस्थितिगत विसंगतियों का भंडाफोड़ किया जाता है। इनमें विद्रूपता का स्वर सर्वाधिक प्रभावी होता है। कुल मिलाकर रचनाएँ चिकोटी काटती हैं। मात्र गुदगुदाती नहीं, बल्कि नस्तर लगाती हैं। इनमें हँसी के फुहारे नहीं छूटते बल्कि तेजाबी छींटें निकलते हैं।
स्वतन्त्रता के पश्चात् विशेष रूप से साठोत्तर लेखन में व्यंग्य को बहुत बढ़ावा मिला है। कारण, साठ के बाद हम भारतीयों का मोह भंग हो गया। राम राज्य का सपना टूट गया। राष्ट्रीय विकास भ्रष्टाचार के कारण अस्त-व्यस्त हो गया। नेताओं की जो नई फौज खड़ी हुई, उसने वोट की राजनीति से प्रेरित होकर पूरी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। प्रजातंत्र भीड़तन्त्र में बदल गया। प्रशासन घपलों-घोटालों में घिर गया। इन सबको देखकर विचारवान नागरिक (विशेषतः बुद्धिजीवी-साहित्यकार-पत्रकार) मर्माहत हो उठे। उनके पास सत्ता की व्यवस्था को बदलने का कोई उपाय न था।
परिस्थिति की व्यवस्था के कारण वे विफलताजन्य कुण्ठा से भर गए। नकारात्मक सोच के शिकार हो गए। एकमात्र सहारा कलम का था। सो, वे हमलावर बन गए इसीलिए जो तख्ती समाचार पत्रकारिता में आ रही थी, वही साहित्य में भी उभरने लगी। जड़ व्यवस्था से क्षुब्ध तथा प्रतिशोधातुर साहित्यकारों का व्यंग्यकार हो जाना सहज स्वाभाविक ही था। व्यंग्य के पक्ष में सन्दर्भ में साहित्य के समाज शास्त्र और परिस्थिति विज्ञान को समझना आवश्यक है।
प्रस्तुत संकलन में इन चारों कोटियों की बानगी प्राप्त होती है। इनमें राजनीतिक व्यंग्य है। उदाहरणार्थ ‘क्या मुर्दे बोलते हैं ?’ रचना देखी जा सकती है। इसी प्रकार सामाजिक कुप्रथाओं और धार्मिक रूढियों पर किए गए अच्छे व्यंग्य हैं। गंगा की आरती, इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। लेखक ने सूक्ष्म पर्यवेक्षण तथा मनोविश्लेषण के सहारे स्थिति स्थिति तथा चरित्र का रूपायन किया है।
बाजपेयी जी की विशेषता है सहजता। वे शिल्पगत पच्चीकारी में नहीं पड़े। किस्सागोई एवं सपाट-बयानी द्वारा उन्होंने अपना मन्तव्य व्यक्त किया है। भाषा में निराडम्बरता है, इसीलिए सम्प्रेषण क्षमता भी है। चिन्तन के साथ पाठकीय सुरुचि को बनाए रखना, वर्तमान लेखन का अनिवार्य युगधर्म है। अस्तु, यह कृति सोदेश्य है और सर्वथा सफल है। मैं इसका सहर्ष स्वागत करता हूँ और कृतिकार का अभिनन्दन भी।
साहित्यिकी : निराधा नगर
लखनऊ
24 जून, 2002
(1) व्यंग्य-विनोद अर्थात वे रचनाएँ जिनमें हास्य का पुट अधिक होता है। यह शिष्ट हास्य भी हो सकता है और कटुलिक्त हास्य भी। हाँ, फूहड़ हास्य शोभनीय नहीं होता। व्यंग्य-प्रधान होने के कारण शुद्ध हास्य के हँसोड़ेपन से यह विनोदपरक व्यंग्य कुछ भिन्न होता है।
(2) व्यंग्य-वेदना-इन रचनाओं में व्यंग्य के माध्यम से अपने मन की पीड़ा की अभिव्यक्ति की जाती है। लेखक ऊपर से हँसता-हँसता प्रतीत होता है, किन्तु मन ही मन रोता है और गहरे अवसाद को व्यक्त करता है।
(3) व्यंग्य-विद्रोह- ये रचनाएँ मूलरूप से विक्षोभ व्यक्त करती हैं। हँसी-हँसी में यह व्यवस्था पर प्रहार करती जाती हैं और प्रतिपक्ष में जा खड़ी होती हैं।
(4) व्यंग्य विडम्बना-इन रचनाओं में परिस्थितिगत विसंगतियों का भंडाफोड़ किया जाता है। इनमें विद्रूपता का स्वर सर्वाधिक प्रभावी होता है। कुल मिलाकर रचनाएँ चिकोटी काटती हैं। मात्र गुदगुदाती नहीं, बल्कि नस्तर लगाती हैं। इनमें हँसी के फुहारे नहीं छूटते बल्कि तेजाबी छींटें निकलते हैं।
स्वतन्त्रता के पश्चात् विशेष रूप से साठोत्तर लेखन में व्यंग्य को बहुत बढ़ावा मिला है। कारण, साठ के बाद हम भारतीयों का मोह भंग हो गया। राम राज्य का सपना टूट गया। राष्ट्रीय विकास भ्रष्टाचार के कारण अस्त-व्यस्त हो गया। नेताओं की जो नई फौज खड़ी हुई, उसने वोट की राजनीति से प्रेरित होकर पूरी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। प्रजातंत्र भीड़तन्त्र में बदल गया। प्रशासन घपलों-घोटालों में घिर गया। इन सबको देखकर विचारवान नागरिक (विशेषतः बुद्धिजीवी-साहित्यकार-पत्रकार) मर्माहत हो उठे। उनके पास सत्ता की व्यवस्था को बदलने का कोई उपाय न था।
परिस्थिति की व्यवस्था के कारण वे विफलताजन्य कुण्ठा से भर गए। नकारात्मक सोच के शिकार हो गए। एकमात्र सहारा कलम का था। सो, वे हमलावर बन गए इसीलिए जो तख्ती समाचार पत्रकारिता में आ रही थी, वही साहित्य में भी उभरने लगी। जड़ व्यवस्था से क्षुब्ध तथा प्रतिशोधातुर साहित्यकारों का व्यंग्यकार हो जाना सहज स्वाभाविक ही था। व्यंग्य के पक्ष में सन्दर्भ में साहित्य के समाज शास्त्र और परिस्थिति विज्ञान को समझना आवश्यक है।
प्रस्तुत संकलन में इन चारों कोटियों की बानगी प्राप्त होती है। इनमें राजनीतिक व्यंग्य है। उदाहरणार्थ ‘क्या मुर्दे बोलते हैं ?’ रचना देखी जा सकती है। इसी प्रकार सामाजिक कुप्रथाओं और धार्मिक रूढियों पर किए गए अच्छे व्यंग्य हैं। गंगा की आरती, इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। लेखक ने सूक्ष्म पर्यवेक्षण तथा मनोविश्लेषण के सहारे स्थिति स्थिति तथा चरित्र का रूपायन किया है।
बाजपेयी जी की विशेषता है सहजता। वे शिल्पगत पच्चीकारी में नहीं पड़े। किस्सागोई एवं सपाट-बयानी द्वारा उन्होंने अपना मन्तव्य व्यक्त किया है। भाषा में निराडम्बरता है, इसीलिए सम्प्रेषण क्षमता भी है। चिन्तन के साथ पाठकीय सुरुचि को बनाए रखना, वर्तमान लेखन का अनिवार्य युगधर्म है। अस्तु, यह कृति सोदेश्य है और सर्वथा सफल है। मैं इसका सहर्ष स्वागत करता हूँ और कृतिकार का अभिनन्दन भी।
साहित्यिकी : निराधा नगर
लखनऊ
24 जून, 2002
-डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित
पूर्व अध्यक्ष एवं आचार्य,
हिन्दी एवं आधुनिक भाषा
विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
पूर्व अध्यक्ष एवं आचार्य,
हिन्दी एवं आधुनिक भाषा
विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
आपसे
अपनी नवीं औपन्यासिक कृति, ‘वेदना के अंकुर’ के
प्रकाशन के
उपरान्त ‘कॉफी हाउस के क़हक़हे’ शीर्षक कहानी-संग्रह
‘प्रिण्ट-मीडिया’ के अनुरक्त प्रेमियों के स्वस्थ
मनोरंजन
हेतु प्रस्तुत करते हुए निवेदन है कि ये चौदह कहानियाँ वर्तमान अभिजात
समाज की प्रदूषित जीवन-शैली, शासन की उपेक्षापूर्ण रुढ़िवादिता और जनता के
साथ उसकी संवादहीनता, शासक और विरोधी दल के कर्णधारों की अपराध-लिप्तता की
ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए हमसे प्रश्न करती हैं कि विश्व-ग्राम,
उन्मुक्त व्यापार की धारणा और विश्वीकृत बाजार के बढ़ते कदम विशाल
जनसंख्या वाले हमारे भारत देश के बेरोज़गार लोगों को किस ओर घसीटे लिए जा
रहे हैं ?
क्या बढ़ती बेरोजगारी और निरन्तर बढ़ता आर्थिक और सामाजिक असंतुलन हमारे देशवासियों के सम्मुख नित नई चुनौतियाँ नहीं खड़ा कर रहा है ?
ऐसी संक्रान्तिकालीन अवधि में व्यक्ति की परिवर्तित मानसिकता, समाज के कर्णधारों के नकली मुखौटे और धर्म-गुरुओं के अवांछित राजनीतिक उपदेश हमारे बुद्धिजीवियों को नए सिरे से कुछ सोचने के लिए विवश कर रहे हैं, अप्रासंगिक पुराने खोखले सामाजिक मूल्यों के जीर्णोद्धार की अपेक्षा कर रहे हैं, तेजी से आगे बढ़ रहे व्यक्ति और प्रगति पथ पर दौड़ रहे भद्र-समाज के अपने अगले मार्ग के पुनर्निर्धारण की स्पष्ट चेतावनी दे रहे हैं।
मुझे विश्वास है कि मेरे पूर्व कहानी-संग्रहों और उपन्यासों की भाँति मेरा वर्तमान कहानी-संग्रह हमारे विवेचनाशील एवं सुधी पाठकों का मनोवांछित मनोरंजन करेगा।
इस अवसर पर मैं डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित, पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी एवं आधुनिक भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र, पूर्व प्राचार्य एवं सुप्रसिद्ध समीक्षक तथा कादम्बिनी, राष्ट्रीय सहारा और दैनिक हिन्दुस्तान के साहित्यिक समीक्षकों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने समय-समय पर मेरी कृतियों का विशद् मूल्यांकन करके मेरा मार्ग-दर्शन किया है। मैं अपने पाँच वर्षीय पौत्र श्रेयस की बाल-सुलभ चपलता एवं विचित्र वाक्पटुता की सराहना करना चाहता हूँ जिसने मुझे लेखन-कार्य में प्रतिदिन नवीन उत्साह और सतत स्फूर्ति प्रदान की है।
अन्त में अपने प्रकाशक आत्माराम एण्ड सन्स कश्मीरी गेट नई दिल्ली के वर्तमान व्यवस्थापक श्री एस.के. पुरी के प्रति विशेष कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहता हूँ जिनके सुरुचिपूर्ण एवं अनुभवी निर्देशन में मेरी समस्त कृतियों का अब तक सुन्दर प्रकाशन सम्भव हो सका है।
क्या बढ़ती बेरोजगारी और निरन्तर बढ़ता आर्थिक और सामाजिक असंतुलन हमारे देशवासियों के सम्मुख नित नई चुनौतियाँ नहीं खड़ा कर रहा है ?
ऐसी संक्रान्तिकालीन अवधि में व्यक्ति की परिवर्तित मानसिकता, समाज के कर्णधारों के नकली मुखौटे और धर्म-गुरुओं के अवांछित राजनीतिक उपदेश हमारे बुद्धिजीवियों को नए सिरे से कुछ सोचने के लिए विवश कर रहे हैं, अप्रासंगिक पुराने खोखले सामाजिक मूल्यों के जीर्णोद्धार की अपेक्षा कर रहे हैं, तेजी से आगे बढ़ रहे व्यक्ति और प्रगति पथ पर दौड़ रहे भद्र-समाज के अपने अगले मार्ग के पुनर्निर्धारण की स्पष्ट चेतावनी दे रहे हैं।
मुझे विश्वास है कि मेरे पूर्व कहानी-संग्रहों और उपन्यासों की भाँति मेरा वर्तमान कहानी-संग्रह हमारे विवेचनाशील एवं सुधी पाठकों का मनोवांछित मनोरंजन करेगा।
इस अवसर पर मैं डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित, पूर्व विभागाध्यक्ष, हिन्दी एवं आधुनिक भाषा विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र, पूर्व प्राचार्य एवं सुप्रसिद्ध समीक्षक तथा कादम्बिनी, राष्ट्रीय सहारा और दैनिक हिन्दुस्तान के साहित्यिक समीक्षकों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने समय-समय पर मेरी कृतियों का विशद् मूल्यांकन करके मेरा मार्ग-दर्शन किया है। मैं अपने पाँच वर्षीय पौत्र श्रेयस की बाल-सुलभ चपलता एवं विचित्र वाक्पटुता की सराहना करना चाहता हूँ जिसने मुझे लेखन-कार्य में प्रतिदिन नवीन उत्साह और सतत स्फूर्ति प्रदान की है।
अन्त में अपने प्रकाशक आत्माराम एण्ड सन्स कश्मीरी गेट नई दिल्ली के वर्तमान व्यवस्थापक श्री एस.के. पुरी के प्रति विशेष कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहता हूँ जिनके सुरुचिपूर्ण एवं अनुभवी निर्देशन में मेरी समस्त कृतियों का अब तक सुन्दर प्रकाशन सम्भव हो सका है।
-भगवती प्रसाद बाजपेयी ‘अनूप’
भूमिका
कथा-शिल्पी श्री भगवती प्रसाद बाजपेयी ‘अनूप’ की 21
कहानियों
का संकलन ‘कॉफी हाउस के क़हक़हे’ अवलोकन करने का
सुयोग मुझे
प्राप्त हुआ। सात उपन्यासों और तीन कहानी-संग्रहों के प्रकाशन से
‘अनूप’ जी कथा-साहित्य के चर्चित लेखकों में हैं।
आदिकाल से मानव कहानी के माध्यम से मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करने का उपक्रम करता आ रहा है। सामाजिक जीवन में नित्यप्रति विशिष्ट घटनाओं का घटित होना स्वाभाविक है। श्री बाजपेयी जी बड़े सजग लेखक हैं जिनकी दृष्टि से राजनीतिक, सामाजिक, वैयक्तित व सांस्कृतिक जीवन में नित्य हो रहे परिवर्तन बच नहीं पाते हैं। कथावस्तु का चयन और उसका मनोनुकूल निर्वाह करने में लेखक को प्रभावी एवं प्रशस्त्र सफलता प्राप्त हुई है।
श्री बाजपेयी जी कहीं अपनी हास्य-व्यंग्य शैली के माध्यम से पाठकों को हँसाते हैं, कहीं मर्म पर चोट करते हैं, कहीं गंभीर होकर पात्र के साथ उसकी मार्मिक व्यथा से पीड़ित करते हैं; कहीं देश-प्रेम की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं, कहीं कर्त्तव्य-पालन के प्रति सचेत करते हैं, कहीं राजनीतिक भ्रष्टाचार की कलई खोलते हैं, कहीं दीन-दुःखी असहाय के लिए करुणा के स्रोत प्रवाहित करते हैं।
कथावस्तु, शीर्षक, प्रवाह, कथोपकथन, सरल सरस भाषा-शैली, उत्कर्ष, अंत और उद्देश्य की दृष्टि से सफल कहानीकार ‘अनूप’ जी कथा-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।
‘जीना भी मुश्किल’ शीर्षक कहानी 50 पृष्ठों की सबसे लम्बी कहानी है। उसने लघु उपन्यास का रूप ले लिया है। कला की दृष्टि से इतनी लम्बी कहानी सफल नहीं कही जा सकती। लेखक की जिन्दादिली के दर्शन प्रत्येक कहानी में मिलते हैं। अवकाश प्राप्ति के पश्चात् सतत हिन्दी-सेवा में संलग्न लेखक की लेखनी अभिनंदनीय है।
आदिकाल से मानव कहानी के माध्यम से मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करने का उपक्रम करता आ रहा है। सामाजिक जीवन में नित्यप्रति विशिष्ट घटनाओं का घटित होना स्वाभाविक है। श्री बाजपेयी जी बड़े सजग लेखक हैं जिनकी दृष्टि से राजनीतिक, सामाजिक, वैयक्तित व सांस्कृतिक जीवन में नित्य हो रहे परिवर्तन बच नहीं पाते हैं। कथावस्तु का चयन और उसका मनोनुकूल निर्वाह करने में लेखक को प्रभावी एवं प्रशस्त्र सफलता प्राप्त हुई है।
श्री बाजपेयी जी कहीं अपनी हास्य-व्यंग्य शैली के माध्यम से पाठकों को हँसाते हैं, कहीं मर्म पर चोट करते हैं, कहीं गंभीर होकर पात्र के साथ उसकी मार्मिक व्यथा से पीड़ित करते हैं; कहीं देश-प्रेम की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं, कहीं कर्त्तव्य-पालन के प्रति सचेत करते हैं, कहीं राजनीतिक भ्रष्टाचार की कलई खोलते हैं, कहीं दीन-दुःखी असहाय के लिए करुणा के स्रोत प्रवाहित करते हैं।
कथावस्तु, शीर्षक, प्रवाह, कथोपकथन, सरल सरस भाषा-शैली, उत्कर्ष, अंत और उद्देश्य की दृष्टि से सफल कहानीकार ‘अनूप’ जी कथा-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।
‘जीना भी मुश्किल’ शीर्षक कहानी 50 पृष्ठों की सबसे लम्बी कहानी है। उसने लघु उपन्यास का रूप ले लिया है। कला की दृष्टि से इतनी लम्बी कहानी सफल नहीं कही जा सकती। लेखक की जिन्दादिली के दर्शन प्रत्येक कहानी में मिलते हैं। अवकाश प्राप्ति के पश्चात् सतत हिन्दी-सेवा में संलग्न लेखक की लेखनी अभिनंदनीय है।
-डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र
क़ॉफी हाउस के क़हक़हे
लकालक सफेदपोश अभी तक अपनी बौद्धिकता का साम्यवादी परचम लहराने वाले,
भूखे-भेड़ियों की जमघटी भीड़ राजधानी के पुराने कॉफी हाउस की हमेशा खाली
रहनेवाली मेजों की आज सोभा बढ़ा रही थी। कारण ? एक तो नई सहस्राब्दि का
दूसरा दिन और दूसरे, पत्रकारों और साहित्य-सेवियों के क्लास को छोड़कर
अन्य सभी केन्द्रिय/राज्य कर्मियों की जेबें नये नोटों से गरमाई हुई थीं।
सचिवालय, जवाहर भवन, शक्ति-भवन और केन्द्रीय आयकर कर्मचारियों की उपस्थिति
धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी।
सफाचट, गंजी चाँदवाले, घुटनों के नीचे तक लटकता लम्बा सफेद खद्दर का कुरता पहने, कन्धों से झूलता पोस्टमैनी थैला टाँगे हाथों में ऐनक का खाली ढक्कन लहराते दो बदसूरत भद्रपुरुष कॉफी हाउस के अन्दर तेजी से प्रवेश करते हुए सीधे मैनेजर के काउण्टर पर पहुँचे, मैनेजर के दाहिने कान में कुछ फुसफुसा कर कहा और तुरन्त पास की दो खाली कुर्सियों को अपनी ओर झटके से घसीटते हुए उसी टेबुल पर आ धमके जिस पर पहले से बैठे यूनिवर्सिटी के दो छात्र धीरे-धीरे अपनी कॉफी का प्याला खाली कर रहे थे।
उन छात्रों ने नेतानुमा इन दोनों नवागन्तुकों को आक्रामण दृष्टि से घूरा, फिर कुछ मुस्कराये और उनके व्यक्तित्व की मनौवैज्ञानिक नापजोख अपने मानकों के तराजू पर करने लगे। उनमें से कम उम्र वाला गुजराल-मार्का दाढ़ी रखे एक जूनियार छात्र बोल पड़ा, ‘‘काण्डपाल जी, मैंने तो अपने बड़े भैया, जो इस समय इण्डियन आर्मी में मेजर होकर कारगिल सेक्टर में तैनात हैं, से कभी सुन रखा था कि लखनऊ के इस पुराने कॉफी हाउस का भी एक गौरवशाली इतिहास रहा है। यहाँ पर कभी यशपाल, भगवती चरण वर्मा, हेमवती नन्दन बहुगुणा, अमृतलाल नागर और नारायण दत्त तिवारी सरीखी आला हस्तियाँ आकर शोभायमान होती थीं और बैठकर शामे-अवध का लुत्फ उठाया करती थीं।
वे लोग लखनवी तहज़ीब के प्रशंसक थे। अफसोस, आज के इन छुटभैये नेताओं ने उसी कॉफी हाउस की रंगत बिगाड़ डाली है। इनसे शराफत और नफासत की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह तो सफेद लिबास में सियासी डाकू हैं। आपने देखा काण्डपाल जी ? ये दोनों नेता हमारी टेबुल पर आफत की तरह आ धमके, तड़ाक से कुर्सी खींची और मेरी मेज धकियाते हुए हचककर बैठ गये। मेरा अधपिया कॉफी का प्याला नीचे गिरा दिया, बदतमीजी की हद हो गई।’’
यह सुनकर काण्डपाल अपनी सिगरेट बुझाते हुए बोला, ‘‘अमाँ चुप हो जाओ, रंगनाथ। यह मौक़ा तुम्हारी तकरीर का नहीं है। ये छुटभैये नेता अभी सियासत की ट्रेनिंग ले रहे हैं। इनकी शैतानी शक्लों और नाचती आँखों को एक बार गौर से देख लो, फिर उनकी तरफ से आँख मोड़कर उनकी फितरत भरी बातों को सुनो और मज़ा लेते रहो।’’
दोनों छात्र खामोशी की मुद्रा में अपनी-अपनी सिरगेट के कश लेने लगे और हवा में धुएँ के बड़े-बड़े छल्ले छोड़ने लगे। इतने में एक नेता की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘क्या साला जमाना आ गया है ! जनपद की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर बन माफियाओं और सरकारी ठेकेदारों की फिल्मी स्टाइल में धड़ाधड़ मारधाड़ होने लगी है। दनादन गोलियाँ चलती हैं और पुलिस वाले स्टेचू बने दूर से तमाशा देखते रहते हैं। उनकी आँखों के सामने जिला कारागार अधीक्षक की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है, हत्यारे सबके सामने भागने में सफल हो जाते हैं और वे खड़े के खड़े रह जाते हैं। अख़बार वाले सायंकालीन संस्करण में मोटी-मोटी हैडिग्सं में हज़रतगंज में दिन-दहाड़े हत्या की ख़बर छाप डालते हैं। फिर पुलिसिया जाँच चींटी की चाल की तरह शुरू हो जाती है, पाँच दिनों में टांय टांय फिस।’’
‘‘अरे यादव जी, आप हमारी पार्टी के सीनियर लीडर हैं, दुनिया देखे नेता हैं, इतनी मामूली बात पर बेकार अफसोस जता रहे हैं। ये घटनाएँ तो हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी का एक अहम हिस्सा बन गई हैं।’’ समझाने के स्वर में काजमी ने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा।
अब यादव जी अपनी आँखों से काले गागल्स उतारते हुए और पत्थर की नकली बाईं आँख को मैले रूमाल से पोंछते हुए अर्द्धस्मित मुद्रा में बोले, ‘‘काज़मी, पहले स्ट्रांग गर्मागर्म कॉफी और एक-एक प्लेट पोटैटो चाप्स मँगवा लो। सबेरे से सूख रहे पेट के अन्दर कुछ दाना-पानी पहुँचे तो दिमाग में हरियाली आए। दारुलशफा और जनपथ के चक्कर काटते-काटते मेरी टाँगें तो जवाब देने लगी हैं। तुम क्या समझो, काज़मी, तुम तो सिर्फ एक साप्ताहिक पत्रिका निकालते हो, राज्यलेखनी नाम रखकर सरकारी विज्ञापन हड़पकर उसी के बूते पैसा कमाने की जुगत कर ली है। पार्टी फोरम में भी ऊँची छलाँग लगाना चाहते हो। मैं पूरे देश की नब्ज़ टटोलकर प्रतिदिन अपनी दूरदर्शी प्रतिक्रिया व्यक्त करता हूँ।’’ यादव जी ने काज़मी की ओर व्यंग्य-भरी दृष्टि से देखा।
‘‘मगर पब्लिक के माइण्ड पर उसका इम्पैक्ट क्या पड़ता है, यादव जी ? मैं तो महाभ्रष्ट इंजीनियर्स, डाक्टर्स और आई.ए.एस.-पी.सी.एस. अधिकारियों के पर्दे के पीछे छिपकर किये गये काले कारनामों को जगजाहिर करता हूँ, उन्हें उजागर करके पब्लिक को सावधान कर देता हूँ।’’
इसी बीच पीले धब्बे लगी सफेद यूनिफार्म पहने खिचड़ी मूँछवाला एक बैरा गर्मागर्म रेडीमेड कॉफी के दो प्याले और दो प्लेट पोटैटो चाप्स लाकर उन देश-सेवक नेताओं के सामने बाअदब पेश करके बोला, ‘‘हुजूर, कॉफी में अपनी जरूरत के मुताबिक शकर मिला लीजिएगा।’’ इतना कहते ही वह अन्दर लौट गया।
‘‘ठीक है, ठीक है-तुम जा सकते हो।’’ यह कहते हुए काज़मी ने ज्यादा शकर मिलाकर एक प्याला यादव जी के सामने बढ़ा दिया और कम शकर प्याले को अपने हाथों में उठा लिया।
काली-मिर्च गर्म कॉफी। पहली चुस्की लेते ही याद जी के ज्ञान-चक्षु खुलने लगे। वे बोले, ‘‘काज़मी ! इस साले रेल मन्त्रालय के खिलाफ अपनी कलम क्यों नहीं उठाते ? हर साल कितनी अनमोल जानों की कुर्बानियाँ यह हत्यारा मन्त्रालय करा देता है। खन्ना और फिरोजाबाद की लोमहर्षक दुर्घटनाएँ अभी दिमाग से ओझल नहीं हुई हैं और अब पंजाब मेल हादसे का शिकार हो गई है। मुम्बई से फिरोजपुर जा रही पंजाब मेल के एक कोच में भुसावल के निकट न जाने क्योंकर आग लग गई या लगा दी गई। ट्रेन पूरी रफ्तार से बढ़ती चली जा रही थी और आग एक-एक करके कई डिब्बों को अपनी भीषण लपटों में लेती जा रही थी; उनमें बैठे यात्रीगण हाय-तौबा मचा रहे थे, करूण-क्रन्दन के साथ औरतें और बच्चे जल-जल कर मर रहे थे। जो लोग आग से जलकर पूरी तरह घायल हो रहे थे उनका कोई पुरसाहाल नहीं था।
तुमको मालूम होगा कि आजकल जिस तरह ताबड़तोड़ रेल दुर्घटनाएँ हो रही हैं, उनके पीछे उग्रवादियों द्वारा तोड़-तोड़ की आशंकाएँ व्यक्त करके रेल अधिकारी अपना दामन छुड़ा लेते हैं।’’ यादव जी यह कहकर मुस्करा दिये।
‘‘तो क्या उग्रवादियों की हरकतों का इन घटनाओं से सम्बन्ध नहीं है ?’’ काज़मी ने जिज्ञासापूर्वक यादव जी की आँखों को ध्यान से देखते हुए प्रश्न दाग दिया।
‘‘हो सकता है, कुछ दुर्घटनाओं के लिये ये आतंकवादी जिम्मेदार हों, पर यह भी सच है कि रेलवे की वर्तमान संचालन व्यवस्था इसके लिये कॉफी हद तक जिम्मेदार है। इधर दुर्घटना घटी, उधर रेलमन्त्री ने अपना त्यागपत्र प्रधानमन्त्री को सौंप दिया। रेल मन्त्रालय ने जाँच कमेटी बैठा दी। प्रधानमन्त्री ने रेलमन्त्री का इस्तीफा नामंजूर करके वापस कर दिया। थोड़े दिनों में जाँच रिपोर्ट सामने आ गई, हर बार की तरह सुरक्षा के क्षेत्र में अधिक सतर्कता बरतने की दुहाई दी गई, पर सच्चाई यह है कि किसी भी स्तर पर कोई सावधानी नहीं बरती जाती। रेलवे स्टाफ स्वयं रेलवे की सामग्री की चोरी करता है, चेकिंग स्टाफ सबके सामने पैसे लेकर बिना टिकट यात्रियों को छोड़ देता है। फर्स्ट क्लास कोच के अन्दर ट्वायलेट में लगे शीशे भी गायब हो जाते हैं। सीटों पर लगी रैक्सिन काटकर रेलकर्मी घर की सब्जी लाने के लिए मजबूत खथैला बना लेते हैं। वाच एण्ड वार्ड विभाग के चौकीदार रात की ड्यूटी में सब कुछ चुरा लेते हैं-पूछने पर हँस के बतलाते हैं-हम हैं वाच एण्ड राब रेल के चौकीदार, चौकीदारी करो, मालगोदाम में जो कुछ काम का दिखे, उसे अपने क्वार्टर पर ले जाओ। रेलमन्त्री से लेकर, रेलवे के गेटमैन तक सभी अपनी मैज-मस्ती में रहते हैं।’’
काजमी यादव जी की बातों को बिना सुने ही उनकी हाँ में हाँ मिलाते जा रहे थे और दिल से चाहते थे कि उनकी मरियल बातों का सिलसिला अब थम जाये, पर यादव जी फिर ढालू सड़क पर पुरानी कार की तरह तेज दौड़ने लगे। बोले, ‘‘काज़मी, तुम अपने सम्पादकीय में साफ-साफ लिखो कि वर्तमान रेलमन्त्री की रहनुमाई में भारतीय रेल सबसे निकम्मी साबित हो रही है। रेलवे टिकट खरीद कर भी बड़ी संख्या में यात्रीगण रेल डिब्बों की छतों पर बैठकर सफर करते हैं। दो प्लेटफार्मों के बीच या आस-पास की जगह में रेल कर्मचारियों की मिलीभगत से मन्दिर और मज़ार बनाकर दिन दूनी और रात चौगुनी कमाई करते हैं। रेलवे की जमीन पर सारे देश में अनधिकृत कब्जों की बाढ़ आ रही है।’’
‘‘अरे बस भी कीजिये, यादव जी, अब लालबहादुर शास्त्री का जमाना लौटकर नहीं आने वाला है। मैं तो रोजना देखता हूँ-ज्यों ही कोई रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर ठहरी, हर डिब्बे की खिड़कियों पर दोनों ओर से पेलमपेल, धक्का-मुक्की, बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं का डिब्बे में चढ़ना-उतरना-उनकी चीख पुकार की भयंकर त्रासदी। घंटों लेट मेल ट्रेनें, प्लेटफार्मों पर न देखी जा सकने वाली गन्दगी, डिब्बों के अन्दर दैनिक यात्रियों द्वारा जुआ-शराब और महिलाओं से बदतमीजी व छेड़छाड़, आयेदिन चलती ट्रेन में डकैती और यात्रियों की हत्याएँ-यह हैं नई सहस्राब्दी की रेल यात्रियों के नये उपहार।’’
काज़मी ने अपनी स्पोर्टमैन वाली सफेद टोपी पहन ली और बोले, ‘‘अब चलिये, यादव जी। क्या फायदा है हम लोगों की बकवास का। इस देश की जनता अन्धी और गूँगी यानी टू-इन-वन है। क्या तुमने आज गांधी प्रतिमा के सामने मृतक संघ के बैनर तले हट्टे-कट्टे आदमियों का जलूस नहीं देखा है। ये सबके सब मरे हुए लोग हैं-जो पुलिस और रेवेन्यू विभाग के रिकार्ड में मर चुके हैं। पुलिस उन्हें मारकर पुरस्कार प्राप्त कर चुकी है, वे चाहते हैं शासन उनका नाम मृतकों की सूची से काटकर उन्हें पुनर्जीवन प्रदान करे।’’
यह सुनकर यादव जी ने अपनी चारमीनारी सिगरेट सुलगाई। काज़मी के कन्धे पर हाथ रखा, और मुस्कराते हुए बिना पैसे दिये कॉफी हाउस के बाहर यह कहते हुए चले गये कि अब सीधे चलो विधानसभा, आज की प्रोसीडिंग भी देखनी है। मैंने सुना है कि विरोधी दल के कुछ सदस्यगण अपने-अपने लम्बे कुरतों की जेब में अण्डे और टमाटर छिपा कर लाये हैं, जिन्हें वे शून्य-प्रहर के प्रश्नकाल में ही शासक दल के प्रमुख वक्ताओं के मुँह पर निशाना साध कर फेंकने का इरादा किये हुए हैं।
सफाचट, गंजी चाँदवाले, घुटनों के नीचे तक लटकता लम्बा सफेद खद्दर का कुरता पहने, कन्धों से झूलता पोस्टमैनी थैला टाँगे हाथों में ऐनक का खाली ढक्कन लहराते दो बदसूरत भद्रपुरुष कॉफी हाउस के अन्दर तेजी से प्रवेश करते हुए सीधे मैनेजर के काउण्टर पर पहुँचे, मैनेजर के दाहिने कान में कुछ फुसफुसा कर कहा और तुरन्त पास की दो खाली कुर्सियों को अपनी ओर झटके से घसीटते हुए उसी टेबुल पर आ धमके जिस पर पहले से बैठे यूनिवर्सिटी के दो छात्र धीरे-धीरे अपनी कॉफी का प्याला खाली कर रहे थे।
उन छात्रों ने नेतानुमा इन दोनों नवागन्तुकों को आक्रामण दृष्टि से घूरा, फिर कुछ मुस्कराये और उनके व्यक्तित्व की मनौवैज्ञानिक नापजोख अपने मानकों के तराजू पर करने लगे। उनमें से कम उम्र वाला गुजराल-मार्का दाढ़ी रखे एक जूनियार छात्र बोल पड़ा, ‘‘काण्डपाल जी, मैंने तो अपने बड़े भैया, जो इस समय इण्डियन आर्मी में मेजर होकर कारगिल सेक्टर में तैनात हैं, से कभी सुन रखा था कि लखनऊ के इस पुराने कॉफी हाउस का भी एक गौरवशाली इतिहास रहा है। यहाँ पर कभी यशपाल, भगवती चरण वर्मा, हेमवती नन्दन बहुगुणा, अमृतलाल नागर और नारायण दत्त तिवारी सरीखी आला हस्तियाँ आकर शोभायमान होती थीं और बैठकर शामे-अवध का लुत्फ उठाया करती थीं।
वे लोग लखनवी तहज़ीब के प्रशंसक थे। अफसोस, आज के इन छुटभैये नेताओं ने उसी कॉफी हाउस की रंगत बिगाड़ डाली है। इनसे शराफत और नफासत की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह तो सफेद लिबास में सियासी डाकू हैं। आपने देखा काण्डपाल जी ? ये दोनों नेता हमारी टेबुल पर आफत की तरह आ धमके, तड़ाक से कुर्सी खींची और मेरी मेज धकियाते हुए हचककर बैठ गये। मेरा अधपिया कॉफी का प्याला नीचे गिरा दिया, बदतमीजी की हद हो गई।’’
यह सुनकर काण्डपाल अपनी सिगरेट बुझाते हुए बोला, ‘‘अमाँ चुप हो जाओ, रंगनाथ। यह मौक़ा तुम्हारी तकरीर का नहीं है। ये छुटभैये नेता अभी सियासत की ट्रेनिंग ले रहे हैं। इनकी शैतानी शक्लों और नाचती आँखों को एक बार गौर से देख लो, फिर उनकी तरफ से आँख मोड़कर उनकी फितरत भरी बातों को सुनो और मज़ा लेते रहो।’’
दोनों छात्र खामोशी की मुद्रा में अपनी-अपनी सिरगेट के कश लेने लगे और हवा में धुएँ के बड़े-बड़े छल्ले छोड़ने लगे। इतने में एक नेता की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘क्या साला जमाना आ गया है ! जनपद की भीड़भाड़ वाली सड़कों पर बन माफियाओं और सरकारी ठेकेदारों की फिल्मी स्टाइल में धड़ाधड़ मारधाड़ होने लगी है। दनादन गोलियाँ चलती हैं और पुलिस वाले स्टेचू बने दूर से तमाशा देखते रहते हैं। उनकी आँखों के सामने जिला कारागार अधीक्षक की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है, हत्यारे सबके सामने भागने में सफल हो जाते हैं और वे खड़े के खड़े रह जाते हैं। अख़बार वाले सायंकालीन संस्करण में मोटी-मोटी हैडिग्सं में हज़रतगंज में दिन-दहाड़े हत्या की ख़बर छाप डालते हैं। फिर पुलिसिया जाँच चींटी की चाल की तरह शुरू हो जाती है, पाँच दिनों में टांय टांय फिस।’’
‘‘अरे यादव जी, आप हमारी पार्टी के सीनियर लीडर हैं, दुनिया देखे नेता हैं, इतनी मामूली बात पर बेकार अफसोस जता रहे हैं। ये घटनाएँ तो हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी का एक अहम हिस्सा बन गई हैं।’’ समझाने के स्वर में काजमी ने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा।
अब यादव जी अपनी आँखों से काले गागल्स उतारते हुए और पत्थर की नकली बाईं आँख को मैले रूमाल से पोंछते हुए अर्द्धस्मित मुद्रा में बोले, ‘‘काज़मी, पहले स्ट्रांग गर्मागर्म कॉफी और एक-एक प्लेट पोटैटो चाप्स मँगवा लो। सबेरे से सूख रहे पेट के अन्दर कुछ दाना-पानी पहुँचे तो दिमाग में हरियाली आए। दारुलशफा और जनपथ के चक्कर काटते-काटते मेरी टाँगें तो जवाब देने लगी हैं। तुम क्या समझो, काज़मी, तुम तो सिर्फ एक साप्ताहिक पत्रिका निकालते हो, राज्यलेखनी नाम रखकर सरकारी विज्ञापन हड़पकर उसी के बूते पैसा कमाने की जुगत कर ली है। पार्टी फोरम में भी ऊँची छलाँग लगाना चाहते हो। मैं पूरे देश की नब्ज़ टटोलकर प्रतिदिन अपनी दूरदर्शी प्रतिक्रिया व्यक्त करता हूँ।’’ यादव जी ने काज़मी की ओर व्यंग्य-भरी दृष्टि से देखा।
‘‘मगर पब्लिक के माइण्ड पर उसका इम्पैक्ट क्या पड़ता है, यादव जी ? मैं तो महाभ्रष्ट इंजीनियर्स, डाक्टर्स और आई.ए.एस.-पी.सी.एस. अधिकारियों के पर्दे के पीछे छिपकर किये गये काले कारनामों को जगजाहिर करता हूँ, उन्हें उजागर करके पब्लिक को सावधान कर देता हूँ।’’
इसी बीच पीले धब्बे लगी सफेद यूनिफार्म पहने खिचड़ी मूँछवाला एक बैरा गर्मागर्म रेडीमेड कॉफी के दो प्याले और दो प्लेट पोटैटो चाप्स लाकर उन देश-सेवक नेताओं के सामने बाअदब पेश करके बोला, ‘‘हुजूर, कॉफी में अपनी जरूरत के मुताबिक शकर मिला लीजिएगा।’’ इतना कहते ही वह अन्दर लौट गया।
‘‘ठीक है, ठीक है-तुम जा सकते हो।’’ यह कहते हुए काज़मी ने ज्यादा शकर मिलाकर एक प्याला यादव जी के सामने बढ़ा दिया और कम शकर प्याले को अपने हाथों में उठा लिया।
काली-मिर्च गर्म कॉफी। पहली चुस्की लेते ही याद जी के ज्ञान-चक्षु खुलने लगे। वे बोले, ‘‘काज़मी ! इस साले रेल मन्त्रालय के खिलाफ अपनी कलम क्यों नहीं उठाते ? हर साल कितनी अनमोल जानों की कुर्बानियाँ यह हत्यारा मन्त्रालय करा देता है। खन्ना और फिरोजाबाद की लोमहर्षक दुर्घटनाएँ अभी दिमाग से ओझल नहीं हुई हैं और अब पंजाब मेल हादसे का शिकार हो गई है। मुम्बई से फिरोजपुर जा रही पंजाब मेल के एक कोच में भुसावल के निकट न जाने क्योंकर आग लग गई या लगा दी गई। ट्रेन पूरी रफ्तार से बढ़ती चली जा रही थी और आग एक-एक करके कई डिब्बों को अपनी भीषण लपटों में लेती जा रही थी; उनमें बैठे यात्रीगण हाय-तौबा मचा रहे थे, करूण-क्रन्दन के साथ औरतें और बच्चे जल-जल कर मर रहे थे। जो लोग आग से जलकर पूरी तरह घायल हो रहे थे उनका कोई पुरसाहाल नहीं था।
तुमको मालूम होगा कि आजकल जिस तरह ताबड़तोड़ रेल दुर्घटनाएँ हो रही हैं, उनके पीछे उग्रवादियों द्वारा तोड़-तोड़ की आशंकाएँ व्यक्त करके रेल अधिकारी अपना दामन छुड़ा लेते हैं।’’ यादव जी यह कहकर मुस्करा दिये।
‘‘तो क्या उग्रवादियों की हरकतों का इन घटनाओं से सम्बन्ध नहीं है ?’’ काज़मी ने जिज्ञासापूर्वक यादव जी की आँखों को ध्यान से देखते हुए प्रश्न दाग दिया।
‘‘हो सकता है, कुछ दुर्घटनाओं के लिये ये आतंकवादी जिम्मेदार हों, पर यह भी सच है कि रेलवे की वर्तमान संचालन व्यवस्था इसके लिये कॉफी हद तक जिम्मेदार है। इधर दुर्घटना घटी, उधर रेलमन्त्री ने अपना त्यागपत्र प्रधानमन्त्री को सौंप दिया। रेल मन्त्रालय ने जाँच कमेटी बैठा दी। प्रधानमन्त्री ने रेलमन्त्री का इस्तीफा नामंजूर करके वापस कर दिया। थोड़े दिनों में जाँच रिपोर्ट सामने आ गई, हर बार की तरह सुरक्षा के क्षेत्र में अधिक सतर्कता बरतने की दुहाई दी गई, पर सच्चाई यह है कि किसी भी स्तर पर कोई सावधानी नहीं बरती जाती। रेलवे स्टाफ स्वयं रेलवे की सामग्री की चोरी करता है, चेकिंग स्टाफ सबके सामने पैसे लेकर बिना टिकट यात्रियों को छोड़ देता है। फर्स्ट क्लास कोच के अन्दर ट्वायलेट में लगे शीशे भी गायब हो जाते हैं। सीटों पर लगी रैक्सिन काटकर रेलकर्मी घर की सब्जी लाने के लिए मजबूत खथैला बना लेते हैं। वाच एण्ड वार्ड विभाग के चौकीदार रात की ड्यूटी में सब कुछ चुरा लेते हैं-पूछने पर हँस के बतलाते हैं-हम हैं वाच एण्ड राब रेल के चौकीदार, चौकीदारी करो, मालगोदाम में जो कुछ काम का दिखे, उसे अपने क्वार्टर पर ले जाओ। रेलमन्त्री से लेकर, रेलवे के गेटमैन तक सभी अपनी मैज-मस्ती में रहते हैं।’’
काजमी यादव जी की बातों को बिना सुने ही उनकी हाँ में हाँ मिलाते जा रहे थे और दिल से चाहते थे कि उनकी मरियल बातों का सिलसिला अब थम जाये, पर यादव जी फिर ढालू सड़क पर पुरानी कार की तरह तेज दौड़ने लगे। बोले, ‘‘काज़मी, तुम अपने सम्पादकीय में साफ-साफ लिखो कि वर्तमान रेलमन्त्री की रहनुमाई में भारतीय रेल सबसे निकम्मी साबित हो रही है। रेलवे टिकट खरीद कर भी बड़ी संख्या में यात्रीगण रेल डिब्बों की छतों पर बैठकर सफर करते हैं। दो प्लेटफार्मों के बीच या आस-पास की जगह में रेल कर्मचारियों की मिलीभगत से मन्दिर और मज़ार बनाकर दिन दूनी और रात चौगुनी कमाई करते हैं। रेलवे की जमीन पर सारे देश में अनधिकृत कब्जों की बाढ़ आ रही है।’’
‘‘अरे बस भी कीजिये, यादव जी, अब लालबहादुर शास्त्री का जमाना लौटकर नहीं आने वाला है। मैं तो रोजना देखता हूँ-ज्यों ही कोई रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर ठहरी, हर डिब्बे की खिड़कियों पर दोनों ओर से पेलमपेल, धक्का-मुक्की, बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं का डिब्बे में चढ़ना-उतरना-उनकी चीख पुकार की भयंकर त्रासदी। घंटों लेट मेल ट्रेनें, प्लेटफार्मों पर न देखी जा सकने वाली गन्दगी, डिब्बों के अन्दर दैनिक यात्रियों द्वारा जुआ-शराब और महिलाओं से बदतमीजी व छेड़छाड़, आयेदिन चलती ट्रेन में डकैती और यात्रियों की हत्याएँ-यह हैं नई सहस्राब्दी की रेल यात्रियों के नये उपहार।’’
काज़मी ने अपनी स्पोर्टमैन वाली सफेद टोपी पहन ली और बोले, ‘‘अब चलिये, यादव जी। क्या फायदा है हम लोगों की बकवास का। इस देश की जनता अन्धी और गूँगी यानी टू-इन-वन है। क्या तुमने आज गांधी प्रतिमा के सामने मृतक संघ के बैनर तले हट्टे-कट्टे आदमियों का जलूस नहीं देखा है। ये सबके सब मरे हुए लोग हैं-जो पुलिस और रेवेन्यू विभाग के रिकार्ड में मर चुके हैं। पुलिस उन्हें मारकर पुरस्कार प्राप्त कर चुकी है, वे चाहते हैं शासन उनका नाम मृतकों की सूची से काटकर उन्हें पुनर्जीवन प्रदान करे।’’
यह सुनकर यादव जी ने अपनी चारमीनारी सिगरेट सुलगाई। काज़मी के कन्धे पर हाथ रखा, और मुस्कराते हुए बिना पैसे दिये कॉफी हाउस के बाहर यह कहते हुए चले गये कि अब सीधे चलो विधानसभा, आज की प्रोसीडिंग भी देखनी है। मैंने सुना है कि विरोधी दल के कुछ सदस्यगण अपने-अपने लम्बे कुरतों की जेब में अण्डे और टमाटर छिपा कर लाये हैं, जिन्हें वे शून्य-प्रहर के प्रश्नकाल में ही शासक दल के प्रमुख वक्ताओं के मुँह पर निशाना साध कर फेंकने का इरादा किये हुए हैं।
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